आज, आज फिर दिखे वो मुझे.... पूरे एक साल बाद. एक पीली रंग की शर्ट पहने हुए, आँखों पर वही चश्मा और हाथ में अपनी छड़ी लिए हुए. वो मुझे नहीं जानते मगर मैं उन्हें अंकल कहता हूँ. राजीव चौक से राजेंद्र प्लेस की मेट्रो लेते हैं. आज किस्मत को पता नहीं क्या मंज़ूर था की सुबह मैं थोड़ा लेट हुआ और मेरी ट्रेन निकल गयी.
तभी वो नज़र आये. एक लड़का उनका हाथ पकड़ कर ला रहा था. होंगे शायद 45 के आसपास , बस देख नहीं सकते. ट्रेन आई और वो मेरे बगल वाले कोच में चढ़ गए. किस्मत से मुझे भी सीट मिल गयी पर पता नहीं क्यूँ मैं थोड़ी थोड़ी देर बाद उनको देख रहा था..शायद इसलिए की वो ठीक से उतर जायें अपने स्टेशन पर..मगर कुछ ठीक नहीं था..उनका स्टेशन तो कब का निकल चुका था, वो उतरे नहीं थे. अगले स्टेशन पर प्लेटफार्म पर मैंने कुछ पल उनका इंतज़ार किया.
बाहर निकल कर उन्होंने अपनी छड़ी खोली.शायद किसी और को नहीं उतरना था. जब उन्होंने छड़ी के सहारे रास्ता ढूँढने की कोशिश की तो मेरे पाँव खुद ब खुद ही उनकी तरफ चल दिए. पास जाकर जब पूछा कि "अंकल आपको कहाँ जाना है " तो बोले , " बेटा मैं एक स्टेशन आगे आ गया हूँ, मुझे राजेंद्र प्लेस जाना है ." मैंने सिर्फ इतना ही कहा "चलिए मैं आपकी मदद करता हूँ". लिफ्ट के आने तक बोले कि " ट्रेन में अनाउंसमेंट इतने धीरे हुआ कि मुझे सुनाई नहीं दिया". अरे कोई बात नहीं , बस इतना ही कहा मैंने. लिफ्ट से निकल कर सामने वाली लिफ्ट पकड़नी थी. जानता था कि वो मेरे जितना तेज़ नहीं चल सकते तो उनके कदम से कदम मिलाये.
लिफ्ट के पास कुछ लोग खड़े थे, हमें देख कर साइड हो गए. लिफ्ट आने तक मैंने एक से कहा ," यार इन्हें ट्रेन में बैठा देना, राजेंद्र प्लेस उतरना है इन्हें". उसने बस इतना कहा , "अरे बिलकुल यार". जब मैंने पीछे पलट कर देखा तो दरवाज़े धीरे धीरे बंद हो रहे थे और उनके चेहरे पर एक मुस्कराहट थी. ऑफिस 25 मिनट देर से पंहुचा मगर जो एक ख़ुशी मिली वो बयान नहीं होती.
इस हरदम भागते शहर में मेरे अन्दर का इंसान शायद अभी मरा नहीं है या फिर दिल में वो बच्चा अभी तक है जो मदद करना चाहता है..क्या है वो तो नहीं पता मगर जो भी है वो एक सुकून देने वाला एहसास है .
(June 2013)
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