प्रगति मैदान .....दिल्ली की वो एक जगह जो जमावड़ा है -Fairs का, Exhibitions का. दुनिया तक अपनी चीज़ें पहुँचाने का एकदम बढ़िया ज़रिया. दुनिया आती भी है यहाँ. सबसे मशहूर है प्रगति मैदान में लगने वाले Book Fairs . फिर चाहे वो नेशनल लेवल के हो या इंटरनेशनल. मेरा भी किताबों के प्रति पागलपन कुछ ज्यादा ही है. मौका मिलते ही किताब चाहिए. अपने दिमाग की खुराफात ऐसे ही शांत होती है.
ऐसा ही मौका मिला था 2012 में. World Book Fair आया था तब. एक Sunday को मौका देख कर निकल पड़े बस प्रगति की ओर. हॉल के अन्दर अन्दर घूम घूम कर किताबें तो कम देख पाया मगर पैरों का बोलो राम ज़रूर हो गया. बैंड बज गया . बहुत दर्द हो गया. मतलब का मुझे क्या
मिला ? फ्रेंच सीखने वाली सीडी ज़रूर ले ली बेहद सस्ते में. फ्रेंच सीखने का बहुत मन था बहुत समय से.
फिर दिखी वो लड़की ठीक मेरे सामने. काफी सुन्दर. किताबों पर हाथ फिरा रही थी, मगर नज़रें सामने थी. पैरों का दर्द जब थोड़ा कम हुआ तो आराम आराम से चला मैं उसकी तरफ. मेरे दिमाग को जो समझना था वो तो वो कब का समझ चुका था. आँखों का अन्धकार किताबों में ज्ञान का प्रकाश ढूंढ रही थी. मगर यह प्रकाश उससे अपनी ही लिपि Braille में ही मिलता. इस Fair की खासियत थी इसका नेविगेशन सिस्टम. एक टच स्क्रीन लगी हुई थी जिसमें आपको पता लग जाता था की अपने मतलब की किताबें आपको किस हॉल में मिलेंगी. मैं तो आते ही सब कुछ उसमें पहले ही छान चुका था. उस लड़की की आँखें बहुत खूबसूरत थी तो मैंने उससे मन ही मन नाम दिया- नैना. नाम पूछने का मन नहीं किया.
Braille थी तो उसी हॉल में, बस दूसरे कोने में.
किसी ने शायद बता दिया होगा उसे हॉल मगर पहुँचाने का ज़िम्मा कौन लेता? पास पहुँच कर मैंने नैना से पूछा , " आप Braille ढूंढ रहे हो? ".
वो बोली " हाँ " .
"मुझे पता है वो कहाँ हैं, आप चलो मेरे साथ."
किसी मदद्गार को पास महसूस करके वो चल दी और मैं उसे Braille किताबों के स्टाल के पास ले गया. अपनी जानी पहचानी लिपि पर हाथ रखते ही उसके चेहरे पर वो ख़ुशी छलकी जैसी किसी बच्चे को होती है अपने मन पसंद Crayons पा कर. उससे विदा लेकर मैं चल दिया.
लड़का हूँ मगर कमबख्त मेरा दिल ही मोम का है. बस ऐसे दृश्य देख कर पिघल जाता है. नाम नहीं पूछा मैंने उसका. एक अजनबी मदद कर गया - यह ही सोचेगी बस. पैरों का दर्द पता नहीं उस मदद की ख़ुशी में कहाँ गायब हो गया...
लड़का हूँ मगर कमबख्त मेरा दिल ही मोम का है. बस ऐसे दृश्य देख कर पिघल जाता है. नाम नहीं पूछा मैंने उसका. एक अजनबी मदद कर गया - यह ही सोचेगी बस. पैरों का दर्द पता नहीं उस मदद की ख़ुशी में कहाँ गायब हो गया...
बाहर निकला तो देखे दो और लड़के. नैना जैसे ही. एक दूसरे का हाथ पकड़ कर चले आ रहे थे...अपनी मंजिल की ओर.. किताबों की दुनिया में. पलकें तो भीग चुकी थी. बस मैं चलता ही गया.. जब भी उस फ्रेंच सीडी की तरफ हाथ बढ़ाता हूँ तो याद आता है नैना का चेहरा और उसके जैसे औरों का भी जिनके लिए वरदान था उस Book Fair में वो Braille किताबों का संसार. मेरा फ्रेंच ज्ञान शायद थोड़ा सा ही बढ़ा है मगर इस बात की उम्मीद ज़रूर है की नैना को तो खजाना मिला होगा..
मेरे इस वाकये को अगर कोई Braille में तब्दील कर दे तो मैं इतना ही कहूंगा की " नैना, दोस्त, आशा है की आपके जीवन में ज्ञान की इतनी रौशनी आये की कभी आपको अपने जीवन का अँधेरा कभी महसूस न हो.
आपका वो अजनबी दोस्त ".
(March 2012)
Really? They have books in Brallie..I never knew this. Book fair in Patna Gandhi Maidan, I have always visited. Hope to visit Delhi one, some time some day :)
ReplyDeleteYes. The international book fairs have a braille section on books
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