गुदगुदी ठहाकों के बीच भविष्य
चौं रे चम्पू
अशोक चक्रधर
चौं रे चम्पू! सुनी ऐ कै ओम प्रकास बाल्मीकि ऊ बिदा है गए। कोई किताब पढ़ी बिनकी? -‘जूठन।’ उनकी आत्मकथा पढ़कर तो मैं हिल गया था। पिछले पच्चीस-तीस दिनों से वैसे ही हिला हुआ हूं। मौत भी हिन्दी के वरिष्ठ लेखकों के पीछे ही पड़ गई है। कल जिंदगी की तलाश में निकला। शायद वहां मिले, जहां सब बराबर हों, खिलखिलाते हुए। जाति, धर्म, वर्ण, दलित, सवर्ण इन सारे सवालों के व्यावहारिक व सकारात्मक उत्तर देते हुए। -का कहि रह्यौ ऐ, कछू समझ नायं आय रई तेरी बात। -हमेशा ऐसा तो नहीं रहेगा चचा, जैसा अब तक हुआ है या जैसा हो रहा है। जो होना है और जो होगा, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। अतीत की कब्रों से कंकाल निकाल कर उनमें कोड़े लगाना कभी-कभी वाजिब लगता है क्योंकि इन्हीं कंकालों के अत्याचारों ने असंख्य लोगों को कंगाल और अंतत: कंकाल बनाया होगा। कितना दमन, कितना अत्याचार, कितना शोषण हुआ वर्णवादी व्यवस्था में, सोचो तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन जिंदगी को उल्लास चाहिए। मैंने मॉरीशस में देखा था कि जब किसी घर में मृत्यु होती थी तो उसके घर के आगे लोग अपने घर की मेज-कुर्सी डाल देते थे, उत्सव मनाते थे, जुआ खेलते थे। मेला तब तक चलता था जब तक दुर्गम पर्वतों को पार कर रिश्तेदार न आ जाएं। उस छोटे से देश में भी पैदल आने में दो-तीन दिन लग जाते थे। तब तक अड़ोसी- पड़ोसी घर के आगे हंसते-खिलखिलाते और ठहाके लगाते थे। -जे तौ अजीब बात ऐ रे! उनका मानना है कि ऐसा करने से मौत भाग जाती है। अच्छा हुआ मुझे भी एक शरणगाह मिल गई। पिछले दिनों एक उत्साही युवक मिला, सिद्धांत मागो। उसने बताया कि चार महीने पहले कुछ मित्रों ने मिलकर ‘पच’ नाम का पोएट्री क्लब बनाया है। लगभग पचास युवा कवि सप्ताह में कहीं मिलते हैं और कविता और हंसी का उत्सव मनाते हैं। मेरी जिज्ञासा बढ़ी और मैं सचमुच उन लोगों के बीच पहुंच गया।
कला, संस्कृति, व्यापार, वाणिज्य, सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग, एडवर्टाइजिंग क्षेत्र के लगभग तीस-पैंतीस युवक-युवतियां जमा थे। मुझे देखते ही खिल उठे और फिर मैंने सुनी उनकी कविताएं। -तैनै अपनी सुनाई कै नायं? -ऐसी जो कहीं नहीं सुनाता। पर उनकी ज्यादा सुनीं। चार घंटे ऐसे बीते कि मैं शोक से सचमुच अशोक हो गया। बंगलुरू के गोविन्द ने टूटी-फूटी हिन्दी में अपने तीसरे प्रेम की पहली कविता सुनाई। वह उच्चारण दोष के कारण खाली लड़की को काली लड़की बोल रहा था। प्रेम के नए-नए स्फुरणों की कविताएं थीं। युवा हंसते हैं तो बुक्का फाड़ कर हंसते हैं। जरा से विरह-वियोग की बात छू जाए तो मिलकर रोने लगते थे। हैरानी थी कि जब दीपाली ने शोर कविता सुनाई तो सबमें सन्नाटा व्याप्त हो गया।आविका ने ‘संडे’ सुनाई तो हंसी लौट आई। अनूप और आदित्य ने सामाजिक समस्याओं पर गहरे कटाक्ष किए। सौम्या की कविता ने कइयों को रुला दिया। सिद्धांत मागो की ‘गुदगुदी’ गजब थी। मैं मगन-भाव से सुनता और देखता रहा कि बीस से तीस के बीच का यह वर्ग अनुभवों से कितना संचित पर हिंदी की साहित्यिक परंपराओं से कितना वंचित है। इन्हें छंदोबद्ध कविता के व्याकरण का बोध लगभग नहीं था। साहित्य का गहरा ज्ञान भी नहीं था। जो था, वह था तात्कालिक अनुभव, दोस्तियां, प्रेम के प्रस्ताव, नई दुनिया बसाने के सपने और उन सपनों में आड़े आने वाले निराशा के घने बादल। फिर बादलों को चीरती बिजली की कोई कौंध और फिर से ठहाकों का अजस्र प्रवाह। -‘पच’ नाम चौं रख्यौ ऐ? -‘पच’ यानी पीएसीएच! पोएट्री एंड चीप ह्यूमर का लघु रूप। चीप ह्यूमर तो मैंने उनकी कविताओं में नहीं पाया। हां, एक खुलापन था संबंधों-अभिव्यक्तियों का - तानों-तिश्नों के साथ। पर इतना बताऊंगा कि पिछले एक महीने के लगभग हर तीसरे-चौथे दिन होने वाले मृत्यु के तांडव के बाद मुझे गुदगुदी और ठहाकों ने भविष्य के प्रति आशावान बनाया।
शायद मौत अब हिंदी लेखकों पर न मंडराए।
बाल्मीकि जी को श्रद्धांजलि!
गुदगुदी ठहाकों के बीच भविष्य : अशोक चक्रधर
Reviewed by Shwetabh
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12:11:00 AM
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