Tuesday, January 14, 2014

PACH 14 : जज़्बात और कविता एक पुराने आँगन में



Bada gumbad and Sheesh Mahal

वो सर्दी में गुनगुनी धूप का एहसास

वो मेरे बगीचे में आते लोगों की आवाज़ मेरे कानों तक आना

वो इतवार की सुबह का नज़ारा

मैं और शीश अपने अगल बगल देख रहे यह रंग बिरंगा मेला

इस मेले में फिर भी अलग दिखे यह सारे

दोस्तों का झुण्ड, आँखों में हॅसी और शायद एक अलग दीवानापन

हमारे बीच में घास पर अपनी महफ़िल जमाये

वैसे तो बहुत आते हैं हमारे बीच मगर इनको पहली बार देखा

चुपके से सर झुकाये, ध्यान से कान लगाए मैं और शीश सुन रहीं इनकी बात

इतिहास को ढूंढते, पुराने ज़माने में खोते , पंछियों की आवाज़ पर मुस्कुराते देखा एक को



मेरी उखड़ती दीवारों पर ऐसे हाथ फेरता जैसे किसी अपने के ज़ख्मो पर मल्हम लगाता

मैं हूँ एक मस्जिद, देखा है मैंने रब के सामने सर झुकते हुए

और यह सारे.... सर झुकाते हैं एहसासों के आगे, अपनेपन के आगे,
जज़बातों के आगे, दिल के आगे, दोस्ती के आगे

ऐसा लगा जैसा बच्चे घर के आँगन में खेल रहे हो
वो भी क्या समां था

वो ठन्डे पानी से नहाना, वो किसी का इंसान जैसा दिखना
वो हॅसना और रो पड़ना दूसरे ही पल
वो एक नादान, मासूम सी लड़की की तारीफ़ सुनते जाना और उसका सबको गले लगाते जाना




वो कॉलेज की यादें दोहराना, वो दिल्ली का गौरव सब को बताना

कौनसी दुनिया से हो तुम सब ?

कुछ शरारतें, कुछ हंसी मज़ाक

वक़्त खुद भी रुक कर इनको देखने लगा

कुछ शेर ओ शायरी , कुछ बातें दिल के चिलमन से बाहर आती हुई

अपने दिल की बातें, सोच, सब कुछ साथ साथ बाँटना

ख़ुशी दुगुना करते, दुःख आधा

ग़ज़लों का समां , प्रोफेसर होने का खुशनुमा मलाल

अरब को चाहे रेत बेचो या खुद को "मैं' में ढूँढो

माँ न होने का दर्द समझो या सब्ज़ी मंडी में डॉक्टर के पास जाओ

रात का ऐतबार कर लो, या सबको भगा लो



याद शहर के रस्ते चल पड़ो उन्ही गलियों में दोबारा या दौड़ के रेल गाड़ी पकड़ो

यादों और प्यार की इमारत सजाओ

इश्क़ में खो जाओ, उसके नाम का ज़िक्र होते ही सजदे में सर झुकते देखो

महबूब से पाक कुछ नहीं...यह इनको देख कर पता चलता है

बड़े होने की फ़िक्र छोड़ो, फिर से बच्चा बन जाओ



अपने साथ राह चलते अजनबियों को साथ जोड़ने का जादू इनसे सीखो

अपने तो क्या परायों को भी होश खोते देखो

वो पीले कागज़ की चिट्टी, वो उस अनजान लड़की का दर्द

मुस्कराहट का ठहाका, दर्द का सन्नाटा 

एक पिता का साहस अपनी बेटी को, वो ज़ख़्मी रूह उस बेटी की

सफ़र में उस लड़की को अपना दिल दे दो

मन की आँखों से पढ़ो वो जज़्बात जो मैंने पढ़े उस सफ़ेद कागज़ पर ... 

और खो जाओ उसके बाद गाने में



क्या लोग हैं यह सब ?

दुनिया से कुछ अलग, मस्त मौला मगर फिर भी अपनी जड़ों से जुड़े हुए

5 घंटों का सफ़र 5 पल का लगा जैसे

महफ़िल नाच - गा , खिलखिलाते खत्म कर गए

अलग अलग नहीं, एक परिवार का हिस्सा थे

नाम शायद था PACH

रात की रौशनी में नहाते हुए, उनको रुख्सत किया हमने 

अलविदा...

जाते जाते एक बात का जवाब देते जाओ




वापस आओगे न??

हमसे दोबारा मिलने , यह ही जादू दोबारा बिखेरने, फिर से हमारे आँगन में मौसम खुशनुमा करने ?

आओगे न ?

आना ज़रूर .... इंतज़ार रहेगा तुम सब का...

इंतज़ार रहेगा फिर से कुछ सुनने का

इंतज़ार रहेगा इन खामोशियों में दबी बातों को महसूस करने का 

इंतज़ार करेंगे मैं और शीश तुम्हारा

इंतज़ार करेंगे हम PACH का

अलविदा...


4 comments:

  1. if only knew life could so so beautiful too, i'd wouldn't have hidden that long!
    "in memories of precious times gone by;
    nostalgia: is a powerful trip"

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    1. Dont be nostalgic any further...enjoy this journey

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  2. Your always make me feel as if I was present there personally, very well written Shwetabh :)

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  3. वही चीनी,वही पानी, न जाने किस अंदाज़ में घोल लाये तुम,
    इक अज़ब सा जायका है, श्वेताभ तुम्हारे शरबत में !!

    "नवीन"

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