Saturday, February 22, 2014

टीस..




मैं माँ नहीं बन सकी तो क्या ?

क्या अब मैं एक औरत भी नहीं रही ? 

क्यूँ समाज मुझे ऐसी नज़रों से देखता है जैसे माँ न बन पाना कोई श्राप हो ?

क्या अब मैं एक बेटी , बहन, दोस्त , पत्नी भी नहीं?

क्यूँ मुझे कोई समझता नहीं?

क्यूँ मैं शिकार हूँ लोगों की नज़रों में छुपे सवालों का या दया की पात्र ?

सास ससुर कुछ कहते नहीं मगर दर्द तो उन्हें भी है

पति की तो जान हूँ मगर फिर भी मेरा दर्द देख कर उनकी जान निकल जाती है

अपने लिए न सही मुझे औरों के लिए तो जीना ही है

माना कि सपना देखा था हम दोनों ने अपने एक चिराग का

एक नटखट बेटा या एक चुलबुली लड़की

मगर अगर माँ बाप न बन पाये तो कसूर तो हम दोनों का ही नहीं न

किसी का भी नहीं...

दुनिया में और भी तो बच्चे है जिनका कोई नहीं

वो भी तरसते होंगे न एक घर के लिए, माँ बाप के लिए, भाई बहन के लिए , उस प्यार के लिए जो उन्हें नहीं मिला , दादा दादी की कहानियों के लिए, रात की लोरियों के लिए...

तो क्यूँ न मैं उन्हें ही अपनाऊँ ?

क्या हुआ अगर वो मेरा खून नहीं हैं तो ?

क्या जन्म देने वाली ही सब कुछ होती है ?

ममता तो सबके ही होती है न ?

ज़िन्दगी के इस मोड़ पर शायद मेरा सुख इसी में है 

किसी को अपनाना, ज़िन्दगी भर के लिए, अपनों की तरह जैसे वो मेरा ही एक हिस्सा हो

देखना फिर यह मायूसी के बादल छटेंगे, फिर सबकी आँखों में ख़ुशी चमकेगी 

फिर इस आँगन में खुशियां खेल खेलेंगी 

फिर मैं उनकी आँखों में मेरे लिए ख़ुशी देख पाऊँगी

फिर से मैं ज़िन्दगी को जी पाऊँगी ...

फिर से मैं दुनिया के आगे फक्र से सर उठा पाऊँगी....


1 comment:

  1. साहसिक सोच एवं सुंदर अभिव्यक्ति.

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