तपती धूप में वो ठंडी छाँव जैसा था
रेगिस्तान में किसी भटके मुसाफिर के लिए वो पानी का चश्मा था
कड़कती ठण्ड में वो किसी के लिए रात गुज़ारने की जगह जैसा था
थके हुए मुसाफिर के लिए मंज़िल जैसा था
ऐसा था वो घर , घर उस मासूम , चुलबुली , एक पैर पर नाचती लड़की का
ऐसी थी मेघा....बस ऐसी ही
जैसे अरसे बाद लौटे मुसाफिर घर अपने वैसे ही मैं लौटा इस आशियाने में
नए लोगों से मिला था, कागज़ कलम का साथ फिर से अच्छा लगा था
चक्रधर बुखार बहुत ज़्यादा था
धर्रे पे चलती ज़िन्दगी को थोड़ा बहुत बदलने की कोशिश भी थी
अपनी फटी चादर में हँसी के पैबंद लगाने बैठ गए
हम ज़िन्दगी जीने के कुछ ढंग बदलने बैठ गए
वो निर्भया का ही दर्द नहीं था , वो आज हर लड़की का डर है
डर सुनसान, अकेली राहों पे चलने का
डर इज़्ज़त और जान बचाने का , डर दूसरी निर्भया न बन जाने का
एक तन्हाई का कोना था, उसमें कुछ तड़प सी भी थी
भागती दौड़ती ज़िन्दगी में एक अकेलापन भी था
एक मिलन की रात भी थी, कुछ अनकही ख्वाहिशों में आवाज़ भी थी
एक दोस्त भी थी और उसके साथ बितायी ढेर सारी यादें भी थी
अब वो रुखसत हो रही है और एक दोस्त की कमी महसूस हो रही थी
सफर इतना ही था तो क्या , जितना भी था प्यारा ही गुज़रा
एक फौजी की ज़िन्दगी को मौत की कगार पर भी खड़े देखा था
अपने फ़र्ज़ की राह में शहीद होते देखा था
गोलियाँ सिर्फ शरीर ही छलनी कर पायी , रूह तो अभी भी देश की खातिर मुस्तैद थी
ज़िन्दगी बस पलक भर में आँखों के सामने से गुज़र गयी एक झोंके में
मैंने इश्क़ के मारों को भी देखा था , ताजमहल पर ताला भी देखा था
प्यार के पैगाम को ले जाता कबूतर भी देखा था
नज़दीक से बुढ़ापा भी देखा था , ढलती उम्र में अपनों को दूर होते भी देखा था
कचौरी भी देखी थी और देखा चटोरपना भी था
Spicy paneer भी देखा था और देखी थी विवेक की बावर्चिगिरी भी
नहीं अच्छी लगती दूसरों की निगाहें तुझ पर
मैं न हिन्दू , न मुस्लमान था , इंसान बनना ही इकलौता फ़र्ज़ था
धर्म को किनारे रख मानवता ही उद्देश था
एक साल बाद प्रकृति के कहर को याद करते देखा था
ज़िन्दगी और मौत के बीच फ़रिश्ते बन आये उन जवानो को देखा था
एक सर्द रात में कुछ यादों को अपने में समाये देखा था
शरीर को ठण्ड और मन को यादों से लड़ते देखा था
सन्नाटे से कुछ सवाल करते देखा था
अपनी ख़ामोशी का जवाब सन्नाटे में ढूंढते देखा था
रात के सोने के तरीके ढूंढ रहा था
जो अपने आगोश में औरों को सुलाये उससे ऐसे जागते रहने का कारण पूछ रहा था
मैं अपने आप से खुद का परिचय करा रहा था
ढूंढ रहा था खुद को खुद से यूँ ही
मैं अपनी ज़िन्दगी के मायने देख रहा था
मैं गोलगप्पे वाला चटोरपना भी कर रहा था
कश्मीर में एक सिपाही बन उसको महफूज़ भी कर रहा था
ढूंढ रहा था मैं उसमें अमन के कुछ पल
मैं जन्नत को जन्नत बनाये रखने के तरीके ढूंढ रहा था
मैं गाँव की उसी पगडण्डी पर चला जा रहा था
मैं उसी मिटटी की महक , उसके पेड़ों की छाँव में खुद को खोता जा रहा था
एक जन्मदिन भी था
एक हीरोइन भी थी, कुछ अपनी तबियत से परेशान भी थी
एक केक भी था और उसके बहुत सारे दीवाने भी थे
प्यार के पकोड़े तले मैंने खट्टी मीठी नोकझोक के तेल में
वो शिकायतें करती रही और मैं उससे उतना ही इश्क़ ग़ालिब की गलियां में भी घूमा था
वो उड़ती धूल , उस खुशनुमा हवा को भी महसूस किया था
बस उस गली में ही बस जाने का मन था
एक दीवानी सी लड़की भी थी, मुझे उससे प्यार भी था
वक़्त गुज़रता गया, वो इश्क़ महसूस करने लगी और मैं डरने लगा
बस इतनी सी ही कहानी थी, यही था PACH
मेघा का PACH
PACH 26 : मेघा रे मेघा रे
Reviewed by Shwetabh
on
4:48:00 AM
Rating:
This is so lovely :)
ReplyDeleteMujhe pata tha yeh wicket girega :)
ReplyDeleteIndeed lovely :)
ReplyDeletewhat a lovely story in such a beautiful way u expressed..:)..thanks for made me part of this story .. :)
ReplyDelete