इस रविवार को फुर्सत निकाल कर गया था PACH. 3 महीने
हो रहे थे. आखिरी बार september में गया था. अब तो यह
भी भूल गया की वो वाला कौनसा PACH था. यह वाला तो
इस साल का आखिरी था मेरे लिए. ज़िन्दगी अब 2 महीने के
लिए मौका ही नहीं देगी. जब जब इसकी तारीख पड़ेगी तब
तब मैं इस शहर में नहीं रहूँगा. 15 महीने हो गए हैं इन
लोगों के साथ. PACH 7 से 37 तक का सफ़र कैसे यहाँ
तक पहुंचा नहीं पता चला मुझे. इस दौरान बहुत कुछ देखा
है..बहुतों को जाते , काफियों को आते हुए इसमें. मुझे क्या
रोक कर रखता है यहाँ यह भी नहीं पता... बस चला आता हूँ
पागलों के बीच दुनिया भूल के. यहाँ कविता ज़रूरी नहीं, कुछ
ज़रूरी नहीं. बस एक ललक चाहिए वही काफी है. मैंने भी तो
कितना कुछ किया यहाँ.. blog articles लिखे इन पे इत्ते
सारे. कभी कहानी की तरह, कभी कविता की तरह और आज
देखो एक चिट्टी ही लिख दे रहा हूँ जज्बातों की. उग्रसेन की
बावली तो एक बहाना था मेरे लिए. इन सबसे मिलना जो
था. उम्मीद थी की और भी आयेंगे मगर जितने भी आये
वही बहुत थे. सच कहूँ तो आँखें तरस गयी थी कुछ को
देखने के लिए और कुछ के लिए तरसती ही रह गयीं.. नाम
नहीं लूँगा उनका क्यूंकि फिर जो आये वो उनके साथ
नाइंसाफी होगी. मगर हाँ अनूप की तो याद आई, वो अगर
यहाँ होता तो मज़ा ही कुछ और होता, लगता है उससे मिलने
का इंतज़ार और लम्बा होगा.
ज़िन्दगी में शायद पहली बार मैं खाली हाथ गया था क्यूंकि मेरे पास कुछ भी लिखा हुआ नहीं था. मोहब्बत पर कवितायेँ तो लिखना महीनो पहले ही बंद कर चुका हूँ और वही था जो यहाँ इन लोगों के बीच सबसे ज्यादा सुनाई हैं. फ़ौज पर नया कुछ लिखा नहीं था तो वो भी नय नहीं था. शायद ज़हन में था अपनी पत्नी के लिए ख़त. पता नहीं क्यूँ मगर दिल किया तो सोचा यह ही रख दूं इन लोगों के सामने. कहते हैं न की दोस्तों के सामने आप अपने सुख दुःख सब बाँट सकते हैं. जो मेरा दिल कहना चाहता था कह दिया. मैं बोलता गया और सारे साँस थामे शायद सुनते गए. वो ख्वाब, वो खवाहिशें, वो हकीकत..सबकुछ ऐसे बाहर निकला जैसे एक दम घुटा बैठा हो मेरे अन्दर. भाग दौड़ की ज़िन्दगी से अलग कुछ फुर्सत के पलों में जैसा महसूस होता है वैसा ही लगा मुझे. एक सुकून था. जब हैरी मेरे पास आकर खड़ा हुआ तो ऐसा एहसास हुआ जैसे या तो मैं या फिर यहाँ बैठा कोई न कोई ज़रूर टूट जायेगा. दिव्याक्ष की चुड़ैल, पुश्मीत की कहानी कुछ हंसी के पल दे गयी मुझे. बाकियों की कवितायेँ तो इतना अन्दर तक असर कर गयी की काफी देर तक शायद मैं कहीं खो ही गया था. अगर PACH लिखना होता मुझे तो हर किसी की कविता ज़ेहन में अच्छी तरह से बैठ गयी होती मगर अब देखो वक़्त बदल गया है. चाह कर भी PACH नहीं लिख पाता अब. वो पहले वाले व्यक्त करने वाले जज़्बात ही नहीं बचे हैं. कुछ नए दोस्त बने... अच्छा लगा. वो 4 घंटे कब बीत गए मालूम नहीं चला. वहाँ से निकले तो मंडी हाउस स्टेशन के पास ही बैठ कर मैं, आशीष, हैरी, अभिषेक चाय पीते पीते दुनिया जहाँ की बातों में लग गए. वहाँ पता लगी दुनिया और उसके लोग – NSD से निकला एक बंदा जो सड़कों पर घूमता है, एक औरत जो बहुत अच्छा कत्थक नाचती हैं मगर यहाँ सामान बेचती हैं, फिर मिला एक ऐसा इंसान जिसे आप पहली नज़र में भिखारी ही समझेंगे मगर बाद में आशीष ने बताया की यह सालों पहले अपनी गर्लफ्रेंड की तलाश में यहाँ आया था...उसकी मौत हो गयी और यह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा. वाह रे ऊपर वाले...इश्क में ऐसे भी मुकाम आते हैं? जिनको मिलता है वो कद्र करना नहीं जानते और जो इसकी वक़्त जानते हैं उनके साथ यह सुलूक ? फिर सोचा तो लगा की दुनिया इतनी बेरेहेम है की कब आपके साथ क्या हो जाए कोई नहीं जानता. ऐसे में यह PACH एक ऐसी जगह है जहाँ आप जैसे हैं वैसे ही पसंद किये जाते हैं. इस ग्रुप को बयान करने के लिए अलफ़ाज़ नहीं हैं मेरे पास .
बस एक ही बात का डर है की क्या मेरे पास इतनी हिम्मत है की जब मेरे जाने का मौका आएगा तो क्या मैं इन लोगों को ठीक से अलविदा भी कह पाउँगा ?? क्या कभी कहने की हिम्मत जुटा पाऊंगा ??
दिल की कलम से... साल का आखिरी PACH #37
Reviewed by Shwetabh
on
10:32:00 PM
Rating:
Bahut Badiya :)
ReplyDeleteZabardasht
ReplyDeletewatevr it is...it's touchy....stay blessed..
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