वो धुंधले पन्ने
किताब नज़रों के ज़्यादा पास क्या हुई, लिखावट ज़रा धुंधली हो गयी
नज़रें दूर तक देखने की आदी थी, पास वाली चीज़ें ज़रा ओझल हो
गयीं.
दिल टूटने का दर्द पता है हमको, तुमको आगाह करना चाह मगर कर
न सके
भांप जाती हैं नज़रें वक़्त के साथ कुछ रिश्तों की दरारें
तुमने देखा तो देख के भी अनदेखा कर दिया
दोस्ती में बताना चाहते थे तुमको कि यह सफ़र जो तुमने चुना यह
ज्यादा दूर तक का नहीं
तुम्हारे लिए हम रहे वही धुंधले पन्ने...
आँखों से ओझल हुए तुम और हम भी अपनी राह चलते रहे
ज़िन्दगी में एक राह पे तुमसे यूँ फिर मुलाकात हुई
न जाने अपनी उस राह पे तुमने चोट खायी या खुद को तन्हा पाया ?
किस ठहराव पे ठहर गए थे तुम ?
मुलाकातों के सिलसिले यूँ ही चलते रहे और बातें जो थी अनकही ,
उन्हें लिख दिया जाए कहीं
कही होती उस समय ये बातें तो मंज़र आज कुछ और होता
दोस्ती के लिहाज़ में लिपटे हुए वो शब्द अनकहे से रह गए
न तुमने कुछ सुना न मैंने कुछ कहा
करीबियां ही कुछ ऐसी थी, कहने सुनने को उस समय कुछ न रहा
पास थे हम इतने कि हमारे लिखे लफ्ज़ दिखाई न दिए और कहने की
उन्हें मुझमें हिम्मत न थी
दोहराते हैं वो ही बात फिर से आज, जो उस समय भी वही थी
पास हैं हम इतने, दूरी चाहे हो जितनी
पकड़ी थी राह हमने अपनी मंजिल को पाने कि , बीच में लगता है राह
कुछ भटक से गये
बैठे एक कोने पे हमने इंतज़ार किया और यह सोचा कि हम राह
भटके तो भटके कहाँ ?
तभी उस मोड़ पे मुझे वो पुराना दोस्त कहीं से आता दिखा कि जहां
से राह छोड़ी थी उसकी मैंने, वहीँ से तो भटके थे हम
बैठे उस मोड़ पे जब आते तुम्हें देखा, तुमने हाथ बढ़ाकर अपना हाथ ,
मुझसे मेरा हाल जो पूछा
धुंधला सा गया कुछ चेहरा तुम्हारा, बाद में देखा कि यह तो आँखों में
कुछ नमी सी थी
हाथ की पकड़ कुछ ढीली थी और शायद आँखों में तुम्हारे कुछ दर्द
सा था