हम सबने अक्ल बेच खाई है, सच में... दो ट्रेन के वाकये .. दोनों अलग, खुद अंदाजा लगाइए
बरौनी मेल , कानपुर सेंट्रल, जनरल डब्बा ... वो 2 वाली सीट. एक बंदा प्लेटफार्म पे मिलने वाली रोटी और रसे वाली सब्जी लेता है. सब्जी दोने में मिलती है, नीचे एक कागज़, एक कागज़ पे 6 रोटियाँ. बन्दे ने जीन्स पहन रखी है जो बेहद बेहद गन्दी है . अब देखिये क्या करता है ? सीट पर कुछ नहीं रखता है.. सारी रोटियाँ सीधे पैर पे कागज़ समेत, दोना सीधे हाथ में पकड़े हुए है . जो रोटी खानी है वो दूसरे पैर पे गन्दी जीन्स पे रख लेता है और खाना शुरू कर देता है ... अक्ल के अंधे, सीट पे पीछे खिसक, दोना रख, दोने वाला कागज़ उठा और अगर रोटियाँ पैर पे रखने का इतना ही शौक है तो पहले कागज़ पे रख ले... लेकिन न ... जिस अन्न के लिए लोग मरते हैं उसकी यह बेकद्री...
उत्सर्ग एक्सप्रेस, लखनऊ मेल, जनरल डब्बा.. सुबह के वक़्त भीड़ होने पे एक बंदा प्लेटफार्म के दूसरी साइड वाले दरवाज़े पे बैठ जाता है. एक महिला अपने 4 साल के बच्चे के साथ आती है , लड़के को उठने को बोलती है और बच्चे को पेशाब करा देती है... लड़का बोलता रहता है कि ट्रेन में टॉयलेट है वहाँ ले जाइये न , औरत बोलती रहती है चुप रहो, और आखिर में “ बकवास न करो “ बक कर वापस चली जाती है ... यह वही लोग होते हैं कभी दिमाग का इस्तेमाल नहीं करते, इन्हें अपनी हालत पसंद आती है.. वो अलग बात है कि न जाने कुछ देर बाद किस बात को लेकर सामने बैठे लोगों से चिल्लम पिल्ली शुरू कर दी, बात इतनी बढ़ी कि लोगों ने धक्के मार के डब्बे से बाहर कर दिया ( चिंता न करें, ट्रेन रुकी हुई थी) .
दोनों वाकये साफ़ बताते हैं कि हम लोगों ने अक्ल बेच खाईं और अंग्रेजी में जिसे कॉमन सेंस कहते हैं वो तो है ही नहीं ...
दिल की कलम से : हम लोगों ने अक्ल बेच खाई है
Reviewed by Shwetabh
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9:02:00 PM
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