कभी कभी जब एक तलाश पूरी होती है तो एक अलग ही सुकून मिलता है जो बयान नहीं किया जा सकता... और जब वो तलाश एक अजीब सी जिद्द का हिस्सा होती है तो अलग ही बात. तो आज की याद और खोने पाने का हिस्सा हैं मेरी “ सोनिया “ दी.
यह सब कुछ कोई 27 साल पहले का किस्सा है जब हम होंगे क्लास 3 में और दी थी 11वी में. हम दीदी के मकान में किरायेदार थे और वो मकान मालिक साहब की पोती. उनका पूरा परिवार जिसमें वो और उनका भाई गौरव भी था. तो हम ठहरे छोटे बच्चे, हमरा दाखिला भी उन्ही के स्कूल में हो गया. स्कूल में जितनी देर भी रहे ,पता था दीदी एक Guardian Angel कि तरह रहेंगी. हम थे भी कुछ ज्यादा ही Introvert, नयी जगह में वैसे ही घबराहट होती थी. मज़े की बात कि स्कूल में जो हाउस होते हैं वो भी हम दोनों का एक ही था.
तो स्कूल में तो धीरे धीरे समय कट ही जाता था, शाम को खूब मस्ती होती थी अपनी. उस ज़माने में उस मकान में एक जंगला बिछा था दोनों फ्लोर्स के बीच तो ऊपर से आवाज़ लगायी और बातचीत शुरू. दीदी के बारे में कहूँ तो उनकी मुस्कराहट अलग ही थी. प्यार तो बहुत करती थीं मगर जब कभी गणित पढ़ाती थी तो रूप बिलकुल ही बदल जाता था. एक तो बचपन से वैसे ही गणित से यूँ ही 36 का आंकड़ा रहा है और ऊपर से वो पढ़ाते पढ़ाते कब गुस्सा हो जाएँ, किसको पता था ? जब वो खुद पढ़ती थी तो उनकी कॉमर्स की किताबों की मोटाई देख कर लगता था न जाने कैसा ग्रन्थ है? हर साल फाइनल एग्जाम से पहले तगड़ी मेहनत करवाती थी पास होने के लिए. मैथ्स का पेपर दे कर घर लौटे नहीं कि “ पेपर दिखाओ, कितने नंबर लाओगे ? ”. मार काटो तो खून नहीं वाली हालत.
2 साल बाद पापा का ट्रान्सफर हुआ तो फिर वो शहर छूटा और वहाँ के लोग लेकिन दीदी का नाम एक रट्टू तोते की तरह ज़बान पे. यूँ ही सालों बीत गए मगर जब भी उस शहर के लोगों का ज़िक्र होता तो मेरा एक सवाल ज़रूर उठता , “ सोनिया दी कहाँ हैं , कैसी हैं? “. इस सब के कोई 2-3 साल बाद दीदी से आखिरी बार मुलाकात हुई थी लखनऊ में. फिर मिलना नहीं हुआ और अंकल का भी ट्रान्सफर हो गया और वो भी लखनऊ छोड़ दिए. फिर ज़िन्दगी ने रफ़्तार पकड़ी और सब गायब हो गए. तब मोबाइल वगैरह कुछ नहीं था, बस लैंडलाइन का ज़माना हुआ करता था.
देखते ही देखते 2018 आ गया. एक दिन अचानक से पापा ने एक मोबाइल नंबर दिया , न जाने कहाँ से, कैसे मिला... वो 10 अंकों का सोनिया दीदी का नंबर. एक बार को यूँ लगा कि न जाने कितने सालों की तपस्या सफल हुई... 2009 में जब मैंने फेसबुक अकाउंट शुरू किया था तो उनका मूलभूत उद्देश ही था पुराने सारे दोस्तों और जानने वालों को ढूंढना, उसमें दीदी का नाम भी शामिल था. इतने सालों में न जाने कितनी बार नाम ढूँढा मगर भाई साहब हमको तो 24 साल पहले का चेहरा याद था, अब पता करना भी मुश्किल था कि अब दिखती कैसी थी वो. चलो फेसबुक के ज़रिये न सही, मिल तो गयीं न ...
मज़ा तो तब आया जब हमने उनको Whatsapp पे मेसेज करके पूछना शुरू किया – आपका नाम यह है, आप इस से पहले इस शहर में थीं, यह स्कूल था ... वो सारी बातें जो इतने सालों से याद थी और जिनका जवाब वही दे सकती थी. जब सारे जवाब हाँ में मिले तब अपने नाम का राज़ खोला. उनका दिया लगभग हर खिलौना आज तक रखा है.. एक सबसे यादगार है यह Keychain.
1994 में दिया उनका यह आखिरी तोहफा था जब हम शहर छोड़ रहे थे. तब से यह यूँ ही संभाल कर रखा है, बिना इस्तेमाल किये...
क्यूँ नहीं किया पता नहीं, बस दीदी की याद से जुड़ा है. बस बेचारे की नाक चली गयी है और एक आँख, ज्यादा चश्मा पहनने से खराब हो गयी है. 3 साल हो गए नंबर मिले हुए मगर आज भी सोचता हूँ तो लगता है बहुत इंतज़ार किया मैंने ढूँढने में... इतनी तल्लीनता से तो और किसी का नंबर नहीं आया.
तो यह थी मेरी सोनिया दी की छोटी सी दास्ताँ .....
पलों को पहरों में और पहरों को अरसों में बदलते देखा है
पाने न पाने की आस को भी धूमिल होते देखा है
वक़्त की रेत के बवंडर पर जब लगा था खो चुका है वो
बवंडर थमने के बाद जब नज़र उठायी तो उस इंसान को सामने खड़ा देखा है...
दिल की कलम से : 24 साल का इंतज़ार
Reviewed by Shwetabh
on
1:57:00 PM
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